
-दिनेश ठाकुर
गोवा में शुरू हुए भारत के 51वें अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में बीते दौर के अभिनेता विश्वजीत चटर्जी को 'इंडियन पर्सनैलिटी ऑफ द ईयर' के खिताब से नवाजने का ऐलान किया गया है। बंगाली बाबू विश्वजीत 84 साल के हो चुके हैं। काफी समय से 'लाइट-कैमरा-एक्शन' की चहल-पहल से दूर हैं। 'आ देखें जरा' (2009) के बाद वह किसी फिल्म में नजर नहीं आए। इसमें उन्होंने नील नितिन मुकेश के दादा का किरदार अदा किया था। कुछ साल से सिनेमा के बजाय वह सियासत में ज्यादा दिलचस्पी ले रहे हैं। दो साल पहले भाजपा में शामिल हो चुके हैं। इससे पहले 2014 में उन्होंने तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ा था और सिर्फ 909 वोट हासिल कर पाए थे। वक्त-वक्त की बात है। साठ के दशक में विश्वजीत फिल्मों के कामयाब हीरो हुआ करते थे। उनकी सस्पेंस और म्यूजिकल फिल्मों पर धन बरसता था। उस दौर में अगर उन्होंने चुनाव लड़ा होता, तो 909 से कई गुना वोट उनके हिस्से में आए होते।
सफेद परिधानों और इसी रंग के जूतों का फैशन
साठ के दशक में 'चॉकलेटी नायकों' की जिस ब्रिगेड पर जनता जर्नादन मेहरबान थी, विश्वजीत उनमें से एक थे। उनका गोरा-गुलाबी रंग सांवली नायिकाओं के लिए रश्क का सबब हुआ करता था। कई फिल्मों में सफेद परिधानों और इसी रंग के जूतों में प्रकट होकर उन्होंने फिल्मों में नए फैशन की शुरुआत की। बाद में जीतेंद्र और गोविंदा ने भी इसे अपनाया। ज्यादातर फिल्मों मेे विश्वजीत ने गले में गिटार लटकाए छैल-छबीले किरदार अदा किए और भारतीय एल्विस प्रीसले के तौर पर मशहूर रहे।
बेशुमार सदाबहार गानों से वाबस्ता
आधा दर्जन बांग्ला फिल्मों के बाद 'बीस साल बाद' (1962) से विश्वजीत ने हिन्दी फिल्मों में कदम रखा। इस सस्पेंस फिल्म में 'बेकरार करके हमें यूं न जाइए' और 'जरा नजरों से कह दो जी निशाना चूक न जाए' गाते हुए वह नई सनसनी बनकर उभरे। इस फिल्म में वहीदा रहमान के साथ उनकी कामयाब जुगलबंदी एक और सस्पेंस फिल्म 'कोहरा' का आधार बनी। यहां भी हेमंत कुमार के जादुई गीत 'ये नयन डरे-डरे' ने उनकी रूमानी छवि को नए रंग दिए। दरअसल, विश्वजीत की कामयाबी में उस दौर के लोकप्रिय गीत-संगीत का बड़ा योगदान रहा। 'न झटको जुल्फ से पानी' (शहनाई), पुकारता चला हूं मैं, हमदम मेरे मान भी जाओ, टुकड़े हैं मेरे दिल के ए यार तेरे आंसू, हुए हैं तुमपे आशिक हम, रोका कई बार मैंने दिल की उमंग को (सभी 'मेरे सनम'), मेरा प्यार वो है (ये रात फिर न आएगी), न ये जमीं थी न आसमां था (सगाई), आ गले लग जा मेरे सपने (अप्रैल फूल), तुम्हारी नजर क्यों खफा हो गई (दो कलियां), इतनी नाजुक न बनो, ये पर्वतों के दायरे (दोनों 'वासना'), नजर न लग जाए किसी की राहों में (नाइट इन लंदन), आंखों में कयामत के काजल, कजरा मोहब्बत वाला (दोनों 'किस्मत') जैसे कई सदाबहार गाने उनके नाम के साथ वाबस्ता हैं।
'राहगीर' में संजीदा किरदार
जीतेंद्र के आगमन के बाद विश्वजीत की चमक धीरे-धीरे धुंधली पडऩे लगी। चॉकलेटी नायक की इमेज बदलने के लिए तरुण मजूमदार की 'राहगीर' में वह संजीदा किरदार में नजर आए। लेकिन फिल्म नाकाम रही। निर्देशन में हाथ आजमाते हुए विश्वजीत ने 1975 में 'कहते हैं मुझको राजा' बनाई। उनके अलावा धर्मेंद्र, हेमा मालिनी और रेखा की मौजूदगी के बावजूद यह फिल्म नहीं चली। बाद में वह चरित्र भूमिकाओं की तरफ मुड़ गए। उम्र के इस पड़ाव में, जब लोग भुला चुके हैं, इस खबर ने विश्वजीत को सुकून दिया होगा कि भारत सरकार उन्हें 'इंडियन पर्सनैलिटी ऑफ द ईयर' का खिताब देने वाली है।
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