-दिनेश ठाकुर
कथक को अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाने में अहम योगदान देने वालीं सितारा देवी ( Sitrara Devi ) के बारे में सोचते हुए शाद अजीमाबादी का शेर याद आता है- 'ढूंढोगे अगर मुल्कों-मुल्कों, मिलने के नहीं, नायाब हैं हम/ ताबीर है जिसकी हसरत-ओ-गम, ए हमनफसो, वो ख्वाब हैं हम।' वाकई दुनियाभर में ढूंढने पर सितारा देवी जैसी हस्ती का मिलना मुश्किल है। कथक की एक से बढ़कर एक हस्तियां कल भी थीं, आज भी हैं, कल भी होंगी, लेकिन सितारा देवी ने इस शास्त्रीय नृत्य को जो भाव-भंगिमाएं, रफ्तार और बुलंदी दी, वह किसी जादू से कम नहीं है। कुदरत ऐसे जादूगर बार-बार नहीं रचती। उर्दू कहानीकार सआदत हसन मंटो (जो कई साल हिन्दी फिल्मों से भी जुड़े रहे) ने अपनी चर्चित 'मीना बाजार' में सितारा देवी के बारे में लिखा है- 'मैंने कई महिलाओं को विश्लेषक की नजर से जाना है, लेकिन सितारा देवी के बारे में जितना जाना, चकरा गया। वे महिला नहीं, एक तूफान हैं और वह भी ऐसा तूफान जो सिर्फ एक बार आकर नहीं टलता, बार-बार आता है। एक घंटे भरपूर नाचना हड्डियों को थका देता है। सितारा देवी मुझे कभी थकी हुई नजर नहीं आईं।'
मधुबाला, रेखा, काजोल को सिखाया कथक
मंटो की पारखी नजरों का विश्लेषण सटीक था। छह साल पहले 25 नवम्बर को 94 साल की उम्र में आखिरी सांस लेने से पहले तक सितारा देवी की सांसों में कथक धड़कता रहा। ढलती उम्र ने उन्हें व्हीलचेयर पर पहुंचा दिया था। फिर भी घर में वे अपने शिष्यों को कथक की बारीकियां सिखाने में व्यस्त रहती थीं। शिष्य खुशनसीब थे कि वे उस लीजेंड से सीख रहे थे, जिन्होंने हिन्दी फिल्मों में कथक को लोकप्रिय बनाने की पहल की, जिनका नृत्य देखकर गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने उन्हें 'नृत्य साम्राज्ञिनी' (नृत्य की महारानी) कहा था और जिन्होंने मधुबाला, माला सिन्हा, रेखा, काजोल आदि को कथक सिखाया।
फिल्मों में अभिनय के साथ गायन भी
तीस से पचास के दशक तक सितारा देवी अभिनेत्री और गायिका के तौर पर फिल्मों में खूब जगमगाईं। गायन की उन्होंने बाकायदा तालीम नहीं ली थी, लेकिन 'शिकवा है किसी का न फरियाद किसी की' (भलाई), 'प्रेम बदरिया छाई' (पागल) और 'मैं अलबेली तितली' (मेरी आंखें) जैसे कई गाने सनद हैं कि वे सुरों की सजावट का सलीका जानती थीं। अभिनय तो खैर उनकी नस-नस में था। महबूब खान की 'रोटी'(1942) में वे उस दौर के सितारे चंद्रमोहन की नायिका थीं। इस फिल्म में मलिका-ए-गजल बेगम अख्तर ने भी अभिनय किया। 'रोटी' की कामयाबी के बाद सितारा देवी ने कई और फिल्मों में उजाला बिखेरा। 'नजमा', 'फूल', 'धीरज', 'बड़ी मां', 'चांद', 'अंधेरा', 'अंजलि' आदि। महबूब खान की क्लासिक 'मदर इंडिया' में होली नृत्य करने के बाद वे फिल्मों से अलग होकर पूरी तरह कथक में रम गईं। लंदन के रॉयल अल्बर्ट हॉल और न्यूयार्क के कार्नेगी हॉल समेत कई देशों में उनके कंसर्ट हुए। उम्र के जिस पड़ाव पर आदमी चार कदम चलकर हांफने लगता है, उस पड़ाव पर भी सितारा देवी के नृत्य की रफ्तार कम नहीं हुई, क्योंकि 'थककर बैठना' उनकी जिंदगी के बाहर का जुमला था।
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प्रेम के किस्सों का दुखद अंत
सितारा देवी कला के प्रति जितनी समर्पित और अनुशासित थीं, निजी जिंदगी में उतनी ही स्वच्छंद। उन्होंने तीन बार शादी की। तीनों बार रिश्ते घुंघरू की तरह टूट गए। 'मुगले-आजम' बनाने वाले के. आसिफ उनके दूसरे पति थे। इससे पहले उन्होंने अभिनेता नजीर अहमद खान से शादी की थी। के. आसिफ से तलाक के बाद उन्होंने लंदन के कारोबारी प्रताप बारोट से शादी की। यह रिश्ता भी ज्यादा नहीं टिका। सुदर्शन फाकिर के शेर 'जिंदगी तुझको जीया है, कोई अफसोस नहीं/ जहर खुद मैंने पीया है, कोई अफसोस नहीं' की तर्ज पर उन्होंने बार-बार दिल टूटने का कभी अफसोस नहीं किया।
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