-दिनेश ठाकुर
जिसके पास गुस्सा होता है, वह बगावत करता है। जिसके पास विचार होते हैं, वह क्रांति करता है। जिसके पास कुछ नहीं होता, वह बेवजह शोर करता है। ओटीटी प्लेटफॉर्म पर आई वेब सीरीज 'बिच्छू का खेल' ( Bicchoo Ka Khel Review Web Series ) पर तीसरी बात लागू होती है। यह भी कहा जाता है कि जिसके पास दौलत होती है, वह दान देता है। जिसके पास इल्म होता है, वह प्रवचन देता है। जिसके पास कुछ नहीं होता, वह गालियां देता है। इस मामले में भी 'बिच्छू का खेल' पर तीसरी बात लागू होती है। नौ एपिसोड वाली तीन घंटे से लम्बी इस वेब सीरीज में बिना बात इतना शोर-शराबा है कि कान झनझना उठते हैं और हीरो समेत कई किरदार इतनी भद्दी गालियां बकते हैं कि सभ्यता शर्मसार हो जाए। शायद इसे बनाने वालों ने बॉबी देओल ( Bobby Deol ) और रानी मुखर्जी ( Rani Mukerji ) की 'बिच्छू' ( Bichhoo Movie ) देख रखी होगी। उस फिल्म में रानी मुखर्जी गालियां बुदबुदाती रहती हैं, जो सुनाई नहीं देतीं, लेकिन उनके होठों की हरकत और हाव-भाव से सब समझ गए थे कि वे क्या बुदबुदा रही हैं।
एकता कपूर को इस बार भी फायदा नहीं
एकता कपूर ( Ekta Kapoor ) टीवी पर सास-बहू के ड्रामे दिखा-दिखाकर तृप्त हो चुकी हैं और काफी समय से 'अब यहां से कहां जाएं हम' की उधेड़बुन में लगती हैं। दो दर्जन से ज्यादा वेब सीरीज बनाने के बाद भी उनके साथ 'माया मिली न राम' वाला मामला है। 'बिच्छू का खेल' से भी उन्हें कोई फायदा नहीं होगा, क्योंकि मुजरिमों की दुनिया पर लोग 'पाताल लोक' और 'मिर्जापुर' देख चुके हैं, जो इसके मुकाबले बेहतर वेब सीरीज हैं। 'बिच्छू का खेल' सत्तर-अस्सी के दशक की 'सी' ग्रेड क्राइम फिल्मों जैसी है, जिसमें शुरू से आखिर तक फूहड़ और बचकाना घटनाएं घूमती रहती हैं। किरदार अजीब-अजीब हरकतें करते रहते हैं, हत्याएं होती रहती हैं और बैकग्राउंड में पुराने गानों (इनमें 'मधुमती' का 'चढ़ गयो पापी बिछुआ' शामिल है) के टुकड़े बजते रहते हैं।
हत्याओं के बीच 'खुल्लम-खुला' प्रेम प्रसंग
'बिच्छू का खेल' का किस्सा एक वकील की हत्या से शुरू होता है। हीरो (दिव्येंदु शर्मा) ( Divyendu Sharma ) थाने पहुंचकर शान से कहता है कि हत्या उसने की है। पुलिस वाला वजह पूछता है, तो वह अपनी (हद से ज्यादा उबाऊ) कहानी सुनाना शुरू कर देता है। उसका कहना है, 'अगर अपनी कहानी खुद नहीं लिखो, तो कोई भी ऐरा-गैरा आपकी कहानी लिख देगा।' फिर किरदारों की पलटन कहानी से जुड़ती रहती है और इनमें से कइयों का राम नाम सत्य होता रहता है। वकील की 'बोल्ड' बेटी (अंशुल चौहान) ( Anshul Chauhan ) और हीरो के प्रेम प्रसंग बीच-बीच में 'खुल्लम-खुला' चलते रहते हैं। इधर, रह-रहकर दिमाग में सवाल घूमता रहता है कि यह वेब सीरीज क्यों और किसके लिए बनाई गई। इसका हुलिया 'बाप है लालटेन छाप, बेटा पावर हाउस और 'ये दुनिया गोल है, यहां हर पाप का डबल रोल है' जैसे ऊटपटांग संवादों से और साफ हो जाता है।
नीरस कहानी, ढीली पटकथा
लुगदी साहित्य की याद दिलाने वाली 'बिच्छू का खेल' की कहानी अगर नीरस है, तो पटकथा भी निहायत ढीली है। रही सही कसर आशीष आर. शुक्ला के कमजोर निर्देशन ने पूरी कर दी। कलाकारों पर उनका नियंत्रण कहीं नजर नहीं आता। हर कोई दनादन बोलता रहता है और ओवर एक्टिंग का रेकॉर्ड तोडऩे पर आमादा नजर आता है। तृष्णा मुखर्जी के अलावा कोई कलाकार प्रभावित नहीं करता। तृष्णा यहां 'टाट में रेशम के पैबंद' की तरह हैं। उन्हें बेवजह के शोर वाली वेब सीरीज में देखकर एक शेर जेहन में घूमता रहा- 'आवाजों की भीड़ में, इतने शोर-शराबे में/ अपनी भी इक राय रखना कितना मुश्किल है।'
वाराणसी का रस नहीं
तकनीकी मोर्चे पर भी 'बिच्छू का खेल' की कमजोरियां जगह-जगह उजागर होती हैं। इसे वाराणसी में फिल्माया गया है। कभी बनारस के नाम से मशहूर बिस्मिल्लाह खान और नजीर बनारसी का यह शहर अपने नैसर्गिक सौंदर्य, संस्कृति, मंदिरों, घाटों, गलियों, सीढिय़ों, चौपाटी और सुबह-शाम के दिलकश नजारों के लिए जाना जाता है। 'बिच्छू का खेल' में वाराणसी की इन खूबियों के कहीं दर्शन नहीं होते। एक घाट का सीन जरूर है, जिसे बार-बार दिखाकर यह जताने की कोशिश की गई है कि हम वाराणसी में हैं।
० वेब सीरीज : बिच्छू का खेल
० अवधि : 3.12 घंटे (नौ एपिसोड)
० रेटिंग : 1.5/5
० निर्देशक : आशीष आर. शुक्ला
० कहानी, पटकथा : गालिब असद भोपाली
० संवाद : क्षितिज रॉय
० संगीत: उद्भव ओझा
० फोटोग्राफी : सुनील पिल्लै
० कलाकार : दिव्येंदु शर्मा, अंशुल चौहान, तृष्णा मुखर्जी, राजेश शर्मा, मोनिका चौधरी, मुकुल चड्ढा, सैयद जीशान कादरी, आकांक्षा ठाकुर, गगन आनंद आदि।
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